फूलदेई, छम्मा देई, दैंणी द्वार, भर भकार,य देई में हो, खुशी अपार,य देई कैं, बारम्बार नमस्कार.उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति लोक परंपरा व लोक पर्वों के लिए पूरे विश्व भर में अलग पहचान रखता है जिसके चलते यहां की संस्कृति समेत त्योहार विश्व भर के लोगों को अपनी ओर बेहद आकर्षित करते हैं। ऐसा ही कुछ लोकप्रिय पर्व है फूलदेई जो चैत्र मास की संक्रांति से शुरू हो जाता है,यह उत्सव उन कुछ प्रमुख उत्सवों में से एक है, जो लोगों को प्रकृति से जोड़ता है। इस समय उत्तराखंड के लोग बड़ी ही खुबसूरती के साथ अपने घरों को सजाते हैं। फूलदेई उत्सव में बच्चों की भूमिक बड़ी ही खास होती है। इस उत्सव में बच्चे पारंपरिक पोशाकों में लोकगीत गाते हुए पेड़ों से ताजे फूल तोड़ते हैं। इसके बाद लोकगीत गाते हुए इसे गांव के हर एक घर के दहलीज पर रखकर आते हैं। ऐसा करके, बच्चे एक-एक कर पूरे गांव में घूम लेते हैं और हर घर को सजा डालते हैं। इस दौरान उनके हाथों में एक थाली होती है, जिसमें चावल, गुड़, नारियल, हरे पत्ते और फूल होते हैं।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार फूलदेई उत्सव के दौरान फ्योंली और बुरांस के फूलों का घर की दहलीज पर रखा जाना बहुत शुभ होता है। इससे घर में खुशहाली आती है ,वही फूल दहली पर डालते हुए कहते है फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार’ ।जिसका अर्थ है भगवान देहरी के इन फूलों से सबकी रक्षा करें और घरों में अन्न के भंडार कभी खाली न होने दें । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, फूलदेई त्योहार मनाने के पीछे एक रोचक कहानी भी है. ऐसा कहा जाता है कि एक बार भगवान शिव अपनी शीतकालीन तपस्या में लीन हुए तो कई बर्ष बीत गए और ऋतुएं परिवर्तित होती रही लेकिन भगवान शिव जी की तंद्रा नहीं टूटी जिस कारण माँ पार्वती और नंदी आदि शिव गण कैलाश में नीरसता का अनुभव करने लगे, तब माता पार्वती जी ने भोलेनाथ जी की तंद्रा तोड़ने की एक अनोखी तरकीब निकाली।जैसे ही कैलाश में फ्योली के पीले फूल खिलने लगे माता पार्वती ने सभी शिव गणों को प्योली के फूलों से निर्मित पीताम्बरी जामा पहनाकर सबको छोटे-छोटे बच्चों का स्वरुप दिया और फिर सभी शिव गणों से कहा कि वे लोग देवताओं की पुष्पवाटिकाओं से ऐसे सुगंधित पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में फैल जाए।
माता पार्वती की आज्ञा का पालन करते हुए सबने वैसा ही किया और सबसे पहले पुष्प भगवान शिव के तंद्रालीन स्वरूप को अर्पित किये जिसे “फूलदेई” कहा गया। साथ में सभी शिव गण एक सुर में गाने लगे “फूलदेई क्षमा देई” ताकि महादेव जी तपस्या में बाधा डालने के लिए उन्हें क्षमा कर दें। बालस्वरूप शिवगणों के समूह स्वर की तीव्रता से भगवान शिव की तंद्रा टूट पड़ी परन्तु बच्चों को देखकर उन्हें क्रोध नहीं आया और वे भी प्रसन्न होकर फूलों की क्रीड़ा में शामिल हो गए और कैलाश में उल्लास का वातावरण छा गया। मान्यता है कि उस दिन मीन संक्रांति का दिन था तभी से उत्तराखंड के में “फूलदेई” को लोक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा, यह एक ऐसा समय है जब लोग एकजुट होते हैं, फूलदेई त्योहार उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हमें प्रकृति के साथ जुड़ने और जीवन की सुंदरता का आनंद लेने का अवसर प्रदान करता है।